प्यार से समझाती है थप्पड़ उन लोगों को जिन्हें इसमें खामखां का प्यार और हक़ नज़र आता है। थप्पड़ रिलीज़ हुए एक सप्ताह बीत चुका है और फ़िल्म अपने चाहनवालों और क्रिटिक्स से थपकियाँ और सिसकियाँ भी पा चुकी है। मुझे जो क़िरदार क़रीब लगा वह दीया मिर्ज़ा का है। वह ऐसी स्त्री है जो अपने प्रेम को खो चुकी है लेकिन ख़ुश है अपनी बिटिया और अपने काम के साथ। क्योंकि उसने जो पाया है वह इतना भरपूर है कि कोई तमन्ना अब बाक़ी नहीं रही। वह कहती भी है उसके साथ सबकुछ एफर्टलेस था। लेकिन आम भारतीय स्त्रियां जानती हैं कि उनकी पूरी गृहस्थी उन्हीं के एफर्ट्स पर टिकी हुई है जिसमें थप्पड़ ,जबरदस्ती, उनका कॅरिअर छोड़ना सब सामान्य है।

निर्देशक अनुभव सुशीला सिन्हा (यही नाम आता है उनका बतौर डायरेक्टर, सुशीला उनकी माँ का नाम है ) मुल्क़ा और आर्टिकल 15 के बाद यह लगातार तीसरी अच्छी फिल्म है। अच्छी बात यह भी है कि अमृता अपना पूरा केस सिर्फ इस थप्पड़ के ख़िलाफ़ लड़ना चाहती है। न घरेलू हिंसा ना ही कोई और अपराध। यही बात इस थप्पड़ को और धार देती है क्योंकि केवल एक थप्पड़ तो हमारे समाज में कोई अलग होने का कारण नहीं। वजूद को ठेस पहुंचानेवाली बात इसे कोई नहीं मानता। ख़ुद वक़ील पूछती है कि बस एक थप्पड़ की वजह से तुम रिश्ता छोड़ना चाहती हो। सच तो यही है कि हमारे समाज में थप्पड़ हक़ की तरह ही हक़ जमा चुका है उलट कुछ को तो यह भी लगता है कि थप्पड़ नहीं मारा तो अपना नहीं समझा, प्यार नहीं किया। बापू के अहिंसक सिद्धांतों के बीच समाज में यह हिंसा सदैव बनी रही। यहाँ थप्पड़ मरनेवाला विक्रम कोई अपराधी नहीं है। बड़े बुज़ुर्गों के पैर छूता है रिश्ते में अलगाव होने जाने के बावजूद अपने ससुर के भी।
केस के सिलसिले में गवाही देने के लिए विक्रम अपनी पड़ोसन दीया के पास भी जाता है लेकिन वह सख़्त लफ़्ज़ों में इंकार कर देती है। इस थप्पड़ को पार्टी में दिया की किशोर बेटी ने भी देखा था। वह अपने दिवंगत पिता के लिए माँ से पूछती है कि क्या पापा ने कभी आपको मारा था। जवाब होता है कभी नहीं। दरअसल एक स्त्री ऐसे ही एफर्टलेस रिश्ते की प्रतीक्षा में होती है जिसका मिलना आसान नहीं है। ब्याह में अब भी सर्वाधिक योगदान स्त्रियों को ही देना पड़ता है। बहरहाल तापसी पन्नू बतौर अमृता बहुत प्रभावी हैं। एक थप्पड़ उसके प्यार को ख़त्म कर चुका है यह वह बताती है , ढोती नहीं। अमृता का प्रतिकार वकील को भी हिम्मत देता है वह खुद भी अपने बिना प्रेमवाले रिश्ते को अलविदा कह देती है। कई रंग हैं थप्पड़ में ज़रूर देखी जानी चाहिए। हमारी आपकी कहानी है लेकिन स्त्री के आर्थिक अधिकार अब भी अधूरे हैं। अपनी मर्ज़ी की फ़िल्म वह कम ही देख पाती है। मैंने अपने किशोर बेटे के साथ देखी। उसे अमृता सही लगी लेकिन अपने डांसर बनने के सपने को छोड़ एक अच्छी बहू बनने को चुनने का फ़ैसला कम समझ आया।
एक संवाद
"तुम एक कंपनी में इतने इमोशनली इन्वेस्टेड थे। यू कुड नॉट मूव ऑन। मैंने तो पूरी लाइफ इन्वेस्ट करी है तुम्हारे साथ। कैसे मूव् ऑन करूं।आय डोंट लव यू। "