वाकई तीन दिन में दो फैसले इंसानी गरिमा को कायम रखनेवाले ही मालूम होते हैं। निजता सर्वोच्च ही होनी चाहिए और कोई भी एकतरफा मनमानी का शिकार नहीं होना चाहिए। सब कुछ ठीक रहा तो हम क्या खाएंगे किससे ब्याह करेंगे ये सारे निर्णय हमारे होंगे। एक प्रकार से यह मदद करेगा एक ऐसे समाज को बनाने में जहाँ एक दूसरे का सम्मान हो। यह न्याय, बराबरी और आज़ादी देनेवाला समाज होगा। इसे किसी भी दल विशेष से जोड़कर देखने के बजाय मानवीय गरिमा से जोड़कर देखा जाना ही सही होगा। भारत वह देश होगा दुनिया में जहाँ निजता नागरिक का सर्वोच्च हक़ होगा। यह हक़ उसे भारतीय संविधान ने पहले ही दिया भी है । शायद कुछ गलत फहमियां हो गईं थीं जो अब दुरुस्त हो जाएंगी। विशेषज्ञ यह भी मान रहें हैं की इससे धारा 377 को आपराधिक ना मानने की राह भी आसान हो सकती है। कौन किसके साथ रहना चाहता है या रह रहा है, उसके लिए वह अपराधी नहीं क़रार दिया जा सकेगा।
शुक्रवार, 25 अगस्त 2017
गुरुवार, 24 अगस्त 2017
दहेज़ से तीन तलाक़ तक
फ़ैसले के चंद घंटे बाद ही दे दिया तलाक़
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मेरठ डेटलाइन से ये ख़बर आज हर अख़बार में प्रकाशित हुई है और उससे पहले तीन तलाक़ के असंवैधानिक हो जाने की सुर्ख़ियों ने हम सबको हर्षाया। बेशक, बेहतरीन, ऐतिहासिक और स्वागत योग्य। यूं तो दहेज़ लेना भी ग़ैर क़ानूनी है लेकिन कौन परवाह करता है। सब चल रहा है। जब इस ग़ैर क़ानूनी लेन-देन के ख़ुशी-ख़ुशी हो जाने के बाद कोई समस्या आती है तब सबकी चेतना लौटती है कि देश में दहेज़ के ख़िलाफ़ एक क़ानून भी तो है। यह और बात है कि अपराध जस का तस जारी है लेकिन कानून को ही भोथरा करने की तैयारी पूरी कर ली गयी है ।
दरअसल काम कई मोर्चों पर करना है। पहले पहल तो उस मानसिकता का बदलना बहुत ज़रूरी है जहाँ यह कुरीति मान्य है कि लड़की से शादी के बदले हम उससे धन लेंगे और जब मन में आया उसे तज देंगे । परित्यक्ता, छोड़ी हुई जैसे शब्द हमारे ही समाज के हैं जो कबीलाई सोच को दर्शाते हैं। समस्या को भले ही एक मज़हब, एक समाज या एक जाति के दायरे में बांध दीजिये लेकिन इसमें कमज़ोर एक राष्ट्र ही होता है। इस मोड़ पर बदलना और संभालना ज़रूरी है क्योंकि फिर एक दिन इतना कुछ बदलेगा कि हमारी पारिवारिक बुनियाद जिस पर हम फ़ख़्र करते हैं उसकी चूलें ही हिलने लगेंगी ।
बदलाव के खाद-पानी से जड़ें सींचीं जानी चाहिए तभी पत्ते हरे होंगे और फूल भी खिलेंगे।
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मेरठ डेटलाइन से ये ख़बर आज हर अख़बार में प्रकाशित हुई है और उससे पहले तीन तलाक़ के असंवैधानिक हो जाने की सुर्ख़ियों ने हम सबको हर्षाया। बेशक, बेहतरीन, ऐतिहासिक और स्वागत योग्य। यूं तो दहेज़ लेना भी ग़ैर क़ानूनी है लेकिन कौन परवाह करता है। सब चल रहा है। जब इस ग़ैर क़ानूनी लेन-देन के ख़ुशी-ख़ुशी हो जाने के बाद कोई समस्या आती है तब सबकी चेतना लौटती है कि देश में दहेज़ के ख़िलाफ़ एक क़ानून भी तो है। यह और बात है कि अपराध जस का तस जारी है लेकिन कानून को ही भोथरा करने की तैयारी पूरी कर ली गयी है ।
दरअसल काम कई मोर्चों पर करना है। पहले पहल तो उस मानसिकता का बदलना बहुत ज़रूरी है जहाँ यह कुरीति मान्य है कि लड़की से शादी के बदले हम उससे धन लेंगे और जब मन में आया उसे तज देंगे । परित्यक्ता, छोड़ी हुई जैसे शब्द हमारे ही समाज के हैं जो कबीलाई सोच को दर्शाते हैं। समस्या को भले ही एक मज़हब, एक समाज या एक जाति के दायरे में बांध दीजिये लेकिन इसमें कमज़ोर एक राष्ट्र ही होता है। इस मोड़ पर बदलना और संभालना ज़रूरी है क्योंकि फिर एक दिन इतना कुछ बदलेगा कि हमारी पारिवारिक बुनियाद जिस पर हम फ़ख़्र करते हैं उसकी चूलें ही हिलने लगेंगी ।
बदलाव के खाद-पानी से जड़ें सींचीं जानी चाहिए तभी पत्ते हरे होंगे और फूल भी खिलेंगे।
मंगलवार, 22 अगस्त 2017
गोरखपुर के बाद रायपुर में O2 का 0 ज़ीरो हो जाना
जब सरकारों के सरोकार अपने नागरिक की ज़िंदगी को बेहतर बनाने के बजाय उसकी देशभक्ति को नापने और प्रेम पर पहरे लगाने में लगे हों तो तब व्यवस्था की साँसें ऐसे ही टूटती हैं। अभी गोरखपुए की साँसें लौटीं ही नहीं थीं कि रायपुर में भी दम तोड़ गईं। वहां सत्तर यहाँ चार मासूम। कर लीजिये जिन-जिन को बर्खास्त करना है लेकिन जब तक अंतिम ज़िम्मेदारी लेनेवाला इसे महसूस नहीं करेगा तब तक व्यवस्था के प्राण यूं ही निकलते रहेंगे। एक बीमार और अधमरा हुआ तंत्र दिन ब दिन मृत्यु शैया की और ही बढ़ेगा ।
इसी छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में सरकारी नसबंदी शिविर में 15 महिलाओं की जान चली गयी थी। यहाँ नवंबर 2014 में पांच घंटे में 83 महिलाओं की लेप्रोस्कोपिक सर्जरी कर दी गई थी। कभी माएं तो कभी बच्चे ये निज़ाम बस जान लेने पर तुला है। इस बार तो प्रदेश की राजधानी रायपुर के बड़े सरकारी अस्पताल में प्राणवायु ऑक्सीजन की कमी से सांस रुकी हैं। ऑक्सीजन की कमी से जब बच्चे हिलने लगे तब भी नशे में धुत व्यवस्था को क्या होश आना था। ऑक्सीजन मीटर काफी नीचे था।
एक बात और जो हैरानी की सामने आई है कि मेडिकल ऑक्सीजन पर GST को शून्य की बजाय 1 8 % की श्रेणी में ला दिया गया है। इंडियन मेडिकल असोसिएशन के अध्यक्ष डॉ के के अग्रवाल के मुताबिक यह असंगत और अन्यायपूर्ण है। जीवन रक्षक दवाओं को पांच फीसदी के स्लैब में रखा गया है।
हादसा दर हादसा क्या वाकई नए निज़ाम से हमें इस बीमार और अधमरे तंत्र में प्राण फूंकने की उम्मीद थी या फिर प्राण वायु ही ले लेने की???
बुधवार, 16 अगस्त 2017
औरत को समझने के लिए हजार साल की जिंदगी चाहिए-देवताले
अब जब महाकवि चंद्रकांत देवताले की देह दिल्ली के एक शवदाह गृह में विलीन हो चुकी है तो फिर क्या शेष है जो हमें उनसे कनेक्ट करता है। हम उनके परिवार का हिस्सा नहीं और ना ही हमारा उनसे रोज़ मिलना-जुलना था। जो जोड़ता है वह है उनकी लेखनी और उनका कवि-मन। वे जब भी लिखते मनवीय संवेदनाओं को स्पंदित कर जाते। ऐसी गहराई कि कविता एक ही समय में चाँद, सूरज और फिर पूरा आसमान हो जाती लेकिन फिर भी वे कहते कि मां पर नहीं लिख सकता कविता।क्योंकि मां ने केवल मटर, मूंगफली के नहीं अपनी आत्मा, आग और पानी के छिलके उतारे हैं मेरे लिए। वे लिखते हैं
मैंने धरती पर कविता लिखी है
चन्द्रमा को बदला है गिटार में
समुद्र को शेर की तरह आकाश के
पिंजरे में खड़ा कर दिया
सूरज पर कभी भी कविता लिख दूंगा
मां पर नहीं लिख सकता कविता
बीती सदी जब ढलान पर थी तभी मेरा परिचय ख्यात पत्रकार शाहिद मिर्ज़ा ने कवि चंद्रकांत देवताले जी से करवाया। साल 95 -96 में वह इंदौर भास्कर का परिसर था। बड़े कवि लेकिन लेकिन बच्चों -सा सहज सरल मन। वह दौर ढलान का होकर भी बहुत बेहतर था जब अख़बार बेहतर परिशिष्टों के लिए साहित्यकारों, कलाकारों को याद करते थे। पत्रकार शाहिद मिर्ज़ा साहब इस बात का हमेशा ख्याल रखते कि कैसे नई पीढ़ी को समकालीन रचनाकारों से रूबरू कराया जाए ताकि उनमें सही समझ और पेशे के लिए सम्मान का भाव पैदा हो। कभी व्यक्ति से मिलवाकर तो कभी किताब, कभी कलाकृति भेंट में देकर वे मुस्कुराते हुए सेतुबंध का काम किया करते। इससे पहले मैं भूलूं कि मैं देवताले जी को याद कर रही हूँ, मैं बताना चाहूंगी कि कविता कैसे एक भोले और सच्चे इंसान को नवाज़ती है इसकी मिसाल थे देवताले जी। कवि मन होना ही कुछ ऐसा है, दुनिया किसी भी रफ़्तार से बढ़ रही हो आपका इंसानी यकीन कभी नहीं डगमगाता। वह कभी मानवता का साथ नहीं छोड़ता। क्या हुआ जो अंत में शरीर जर्जर हो रहा हो या याददाश्त किसी बियांबां में भटक रही हो। जो कागज़ पर उतर गया अटल है कायम है। हिंदी कविता को बड़ी ऊंचाई देनेवाला एक कवि ज़िंदा है हमेशा।
डेली न्यूज़ की साप्ताहिक पत्रिका खुशबू को एडिट करते हुए उनकी एक कविता छापकर मैं तो भूल ही गई थी। उन्हें एक छोटा सा चेक गया होगा पत्र की ओर से। दफ्तर के लैंडलाइन पर उनका कॉल आया। बच्चों के बारे में पूछा तो मैंने कहा आपकी एक कविता यमराज की दिशा उनके नौवीं के हिंदी पाठ्यक्रम में भी है। मैं बच्चों से आपको जल्द मिलवाऊंगी। यह मुलाकात नहीं हो सकी फिर भी बच्चे उन्हें जानते हैं समझते हैं अपने कवि
से जुड़े हैं।
साल 95-96 की बात होगी। शाहिद मिर्ज़ा साहब को दीपावली को बोनस संस्थान से मिला था। उन्होंने मित्रो के साथ मिलकर इंदौर में चंद्रकांत देवताले जी का कविता पाठ रखा। देवतालेजी ने बेहतरीन कविताएं सुनाईं। पत्रकार का अपने कवि को यूं सम्मान देना उस शहर की रवायत का हिस्सा रहा होगा शायद। मैं अपनी छोटी बहन के साथ वहां गई थी। पत्रकार और व्यंग्यकार प्रकाश पुरोहित जी भी वहां मिले। देखते ही बोले इसे क्यों बिगड़ रही हो अपने साथ।
देवताले जी के इंदौर स्थित संवाद नगर घर पर भी जाना हुआ। एक कवि बेहद सादगी के साथ अपने अकेलेपन में भी जीवन की रौशनी रचता है। तभी तो लेखिका स्वाति तिवारी लिखती हैं ,उन्हें निमंत्रण देना मतलब --सबसे पहले सवाल हाँ तो मैं क्या करूंगा आकर ? ये क्या ये ------कौन साहित्य में ? इसको क्यों बुलवा लिया ? फिर कहेंगे अच्छा देखता हूँ ---और फिर अक्सर आते ही ,बाद में कहते अच्छा हुआ कार्यक्रम ,अगली बार फिर बुला लेना मुझे याद रख के ---
बाद में वे और शांति और सादगी के लिए थोड़ी दूर स्थित महाकाल की नगरी उज्जैन चले गए। कवि शिव मंगल सिंह सुमन भी यहीं बसते थे। देवताले जी के कविता संग्रह हड्डियों में छिपा ज्वर से एक कवितांश
फिर भी
सिर्फ एक औरत को समझने के लिए
हजार साल की जिंदगी चाहिए मुझको
क्योंकि औरत सिर्फ भाप या बसंत ही नहीं है
एक सिम्फनी भी है समूचे ब्रह्मांड की
जिसका दूध, दूब पर दौड़ते हुए बच्चे में
खरगोश की तरह कुलांचे भरता है
और एक कंदरा भी है किसी अज्ञात इलाके में
जिसमें उसकी शोकमग्न परछाईं
दर्पण पर छाई गर्द को रगड़ती रहती है
कवि के बारे में
चंद्रकांत देवताले (जन्म १९३६) का जन्म गाँव जौलखेड़ा, जिला बैतूल, मध्य प्रदेश में हुआ। उच्च शिक्षा इंदौर से हुई तथा पी-एच.डी. सागर विश्वविद्यालय, सागर से। साठोत्तरी हिंदी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर देवताले जी उच्च शिक्षा में अध्यापन कार्य से संबद्ध रहे हैं। देवताले जी की प्रमुख कृतियाँ हैं- हड्डियों में छिपा ज्वर, दीवारों पर खून से, लकड़बग्घा हँस रहा है, रोशनी के मैदान की तरफ़, भूखंड तप रहा है, हर चीज़ आग में बताई गई थी, पत्थर की बैंच, इतनी पत्थर रोशनी, उजाड़ में संग्रहालय।
मैंने धरती पर कविता लिखी है
चन्द्रमा को बदला है गिटार में
समुद्र को शेर की तरह आकाश के
पिंजरे में खड़ा कर दिया
सूरज पर कभी भी कविता लिख दूंगा
मां पर नहीं लिख सकता कविता
बीती सदी जब ढलान पर थी तभी मेरा परिचय ख्यात पत्रकार शाहिद मिर्ज़ा ने कवि चंद्रकांत देवताले जी से करवाया। साल 95 -96 में वह इंदौर भास्कर का परिसर था। बड़े कवि लेकिन लेकिन बच्चों -सा सहज सरल मन। वह दौर ढलान का होकर भी बहुत बेहतर था जब अख़बार बेहतर परिशिष्टों के लिए साहित्यकारों, कलाकारों को याद करते थे। पत्रकार शाहिद मिर्ज़ा साहब इस बात का हमेशा ख्याल रखते कि कैसे नई पीढ़ी को समकालीन रचनाकारों से रूबरू कराया जाए ताकि उनमें सही समझ और पेशे के लिए सम्मान का भाव पैदा हो। कभी व्यक्ति से मिलवाकर तो कभी किताब, कभी कलाकृति भेंट में देकर वे मुस्कुराते हुए सेतुबंध का काम किया करते। इससे पहले मैं भूलूं कि मैं देवताले जी को याद कर रही हूँ, मैं बताना चाहूंगी कि कविता कैसे एक भोले और सच्चे इंसान को नवाज़ती है इसकी मिसाल थे देवताले जी। कवि मन होना ही कुछ ऐसा है, दुनिया किसी भी रफ़्तार से बढ़ रही हो आपका इंसानी यकीन कभी नहीं डगमगाता। वह कभी मानवता का साथ नहीं छोड़ता। क्या हुआ जो अंत में शरीर जर्जर हो रहा हो या याददाश्त किसी बियांबां में भटक रही हो। जो कागज़ पर उतर गया अटल है कायम है। हिंदी कविता को बड़ी ऊंचाई देनेवाला एक कवि ज़िंदा है हमेशा।
डेली न्यूज़ की साप्ताहिक पत्रिका खुशबू को एडिट करते हुए उनकी एक कविता छापकर मैं तो भूल ही गई थी। उन्हें एक छोटा सा चेक गया होगा पत्र की ओर से। दफ्तर के लैंडलाइन पर उनका कॉल आया। बच्चों के बारे में पूछा तो मैंने कहा आपकी एक कविता यमराज की दिशा उनके नौवीं के हिंदी पाठ्यक्रम में भी है। मैं बच्चों से आपको जल्द मिलवाऊंगी। यह मुलाकात नहीं हो सकी फिर भी बच्चे उन्हें जानते हैं समझते हैं अपने कवि
से जुड़े हैं।
साल 95-96 की बात होगी। शाहिद मिर्ज़ा साहब को दीपावली को बोनस संस्थान से मिला था। उन्होंने मित्रो के साथ मिलकर इंदौर में चंद्रकांत देवताले जी का कविता पाठ रखा। देवतालेजी ने बेहतरीन कविताएं सुनाईं। पत्रकार का अपने कवि को यूं सम्मान देना उस शहर की रवायत का हिस्सा रहा होगा शायद। मैं अपनी छोटी बहन के साथ वहां गई थी। पत्रकार और व्यंग्यकार प्रकाश पुरोहित जी भी वहां मिले। देखते ही बोले इसे क्यों बिगड़ रही हो अपने साथ।
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चंद्रकांत देवताले 1936 -2017 |
बाद में वे और शांति और सादगी के लिए थोड़ी दूर स्थित महाकाल की नगरी उज्जैन चले गए। कवि शिव मंगल सिंह सुमन भी यहीं बसते थे। देवताले जी के कविता संग्रह हड्डियों में छिपा ज्वर से एक कवितांश
फिर भी
सिर्फ एक औरत को समझने के लिए
हजार साल की जिंदगी चाहिए मुझको
क्योंकि औरत सिर्फ भाप या बसंत ही नहीं है
एक सिम्फनी भी है समूचे ब्रह्मांड की
जिसका दूध, दूब पर दौड़ते हुए बच्चे में
खरगोश की तरह कुलांचे भरता है
और एक कंदरा भी है किसी अज्ञात इलाके में
जिसमें उसकी शोकमग्न परछाईं
दर्पण पर छाई गर्द को रगड़ती रहती है
कवि के बारे में
चंद्रकांत देवताले (जन्म १९३६) का जन्म गाँव जौलखेड़ा, जिला बैतूल, मध्य प्रदेश में हुआ। उच्च शिक्षा इंदौर से हुई तथा पी-एच.डी. सागर विश्वविद्यालय, सागर से। साठोत्तरी हिंदी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर देवताले जी उच्च शिक्षा में अध्यापन कार्य से संबद्ध रहे हैं। देवताले जी की प्रमुख कृतियाँ हैं- हड्डियों में छिपा ज्वर, दीवारों पर खून से, लकड़बग्घा हँस रहा है, रोशनी के मैदान की तरफ़, भूखंड तप रहा है, हर चीज़ आग में बताई गई थी, पत्थर की बैंच, इतनी पत्थर रोशनी, उजाड़ में संग्रहालय।
सोमवार, 14 अगस्त 2017
छलकाते रहे सिंधु का जल जो उनकी आँखों में था
सभी दोस्तों को आज़ादी की वर्षगांठ बहुत-बहुत मुबारक। आज़ाद होने का एहसास जब सत्तर सालों बाद भी हमें यूं स्पंदित कर देता है तो कल्पना की जा सकती है कि उस दौर का आलम क्या रहा होगा। शायद उस दौर में विभाजन ने हमारी खुशियों में सुराख़ किया था। मैं उन परिवारों से ताल्लुक रखती हूँ जो मुल्क के विभाजन के बाद भारत आए। शरणार्थी परिवार। हमारे पुरखों के शब्दकोष में बस एक ही शब्द था संघर्ष। क्या स्त्री क्या पुरुष सबने इसी के आस-पास अपनी ज़िंदगी बुन ली थी।
ज़िन्दगी बढ़ती रही लेकिन इस कौम को किसी के आगे हाथ फैलाना मंज़ूर नहीं था। कठोर परिश्रम से अपनी ज़िन्दगियों की सूरत बदलने की ज़िद उन्होंने हमेशा जारी रखी। जारी रखा अपने बच्चों को बेहतर ज़िंदगी देने का संकल्प। किसी से कोई अपेक्षा नहीं। सरकार को भी हमेशा झुक-झुक कर इसलिए धन्यवाद देते रहे कि उन्हें माँ भारती की गोद में शरण मिली। इसके अलावा कोई मांग इस समुदाय के भीतर मैंने तो नहीं देखी। क्या उनका अपमान ना हुआ होगा ? क्या उनकी संस्कृति, उनके स्थानीय भाषा बोलने के अंदाज़ ने उन्हें मज़ाक का बायस न बनाया होगा ? फिर भी वे दूध में शकर की तरह घुलते रहे। छलकाते रहे सिंधु का जल जो उनकी आँखों में था। पुरखे सिंध को याद करते हुए इन सत्तर बरसों में बिदा होते रहे। विरसे में छोड़ गए अपने दम पर अपनी कौम के कल्याणका मज़बूत इरादा । देशहित में ये वाकई बड़ा योगदान होता है जब एक समाज अपनी मदद के लिए किसी ओर नहीं ताकता। बुज़ुर्गों को मैंने हमेशा नतशिर ही पाया , इतने विनम्र और व्यवहार कुशल कि बजाय भिड़ने के हर मामले को शांति की ओर मोड़ देते। ऐसा आत्मनियंत्रण और संयम शायद सिंधु की ही देन था। पांच हज़ार साल की सभ्यता के अंश को महसूस करना कोई सादा काम नहीं है लेकिन वह पुरखों में नज़र आती थी।
विभाजन की कथा में दर्द के सिवाय होता भी क्या है लेकिन सत्तर साल में कोई समाज कितनी समरसता के साथ कितना आगे बढ़ा यह वक्त उस लेखे-जोखे का भी तो है।
ज़िन्दगी बढ़ती रही लेकिन इस कौम को किसी के आगे हाथ फैलाना मंज़ूर नहीं था। कठोर परिश्रम से अपनी ज़िन्दगियों की सूरत बदलने की ज़िद उन्होंने हमेशा जारी रखी। जारी रखा अपने बच्चों को बेहतर ज़िंदगी देने का संकल्प। किसी से कोई अपेक्षा नहीं। सरकार को भी हमेशा झुक-झुक कर इसलिए धन्यवाद देते रहे कि उन्हें माँ भारती की गोद में शरण मिली। इसके अलावा कोई मांग इस समुदाय के भीतर मैंने तो नहीं देखी। क्या उनका अपमान ना हुआ होगा ? क्या उनकी संस्कृति, उनके स्थानीय भाषा बोलने के अंदाज़ ने उन्हें मज़ाक का बायस न बनाया होगा ? फिर भी वे दूध में शकर की तरह घुलते रहे। छलकाते रहे सिंधु का जल जो उनकी आँखों में था। पुरखे सिंध को याद करते हुए इन सत्तर बरसों में बिदा होते रहे। विरसे में छोड़ गए अपने दम पर अपनी कौम के कल्याणका मज़बूत इरादा । देशहित में ये वाकई बड़ा योगदान होता है जब एक समाज अपनी मदद के लिए किसी ओर नहीं ताकता। बुज़ुर्गों को मैंने हमेशा नतशिर ही पाया , इतने विनम्र और व्यवहार कुशल कि बजाय भिड़ने के हर मामले को शांति की ओर मोड़ देते। ऐसा आत्मनियंत्रण और संयम शायद सिंधु की ही देन था। पांच हज़ार साल की सभ्यता के अंश को महसूस करना कोई सादा काम नहीं है लेकिन वह पुरखों में नज़र आती थी।
विभाजन की कथा में दर्द के सिवाय होता भी क्या है लेकिन सत्तर साल में कोई समाज कितनी समरसता के साथ कितना आगे बढ़ा यह वक्त उस लेखे-जोखे का भी तो है।
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