टोपी हो या तिलक इसे ना कहने
वालों के लिए एक ही खयाल सामने
आता है कि ये या तो हिंदुस्तान की
तहजीब से वाकिफ नहीं या फिर
अपने पुरखों को नहीं मानते। ये उन
लोगों का अपमान है जो अपने
मजहब का पालन करते हुए भी सर
पर हाथ रखकर तिलक स्वीकार
करते हैं, टोपी पहनते हैं, बिंदी धारण
करते हैं। हमारी एक साथी थीं ।
अभी दूसरे शहर हैं । भरापूरा कुनबा
था उनका । दफ्तर बिंदी लगाकर
आती थीं। कभी किसी ने एतराज
नहीं किया। कई साहित्यकार,
लेखक , कलाकार स्वागत में तिलक
स्वीकार करते हैं। दीप प्रज्ज्वलित
करते
हैं। मूर्तिपूजक न होने के बावजूद ईश्वर की मूर्तियां हाथ जोड़कर ग्रहण
करते हैं। तो क्या वे धर्मद्रोही हो गए, क्या ऐसा करने से इनकी वालों के लिए एक ही खयाल सामने
आता है कि ये या तो हिंदुस्तान की
तहजीब से वाकिफ नहीं या फिर
अपने पुरखों को नहीं मानते। ये उन
लोगों का अपमान है जो अपने
मजहब का पालन करते हुए भी सर
पर हाथ रखकर तिलक स्वीकार
करते हैं, टोपी पहनते हैं, बिंदी धारण
करते हैं। हमारी एक साथी थीं ।
अभी दूसरे शहर हैं । भरापूरा कुनबा
था उनका । दफ्तर बिंदी लगाकर
आती थीं। कभी किसी ने एतराज
नहीं किया। कई साहित्यकार,
लेखक , कलाकार स्वागत में तिलक
स्वीकार करते हैं। दीप प्रज्ज्वलित
आस्था घट गई या वे उस मजहब के
नहीं रहे, जहां वे पैदा हुए हैं। बनारस
के गंगा घाट पर बने मंदिर के अहाते में
बिस्मिल्लाह खां साहब का शहनाई
वादन तो जैसे कुफ़्र (पाप) हो गया।
अस्वीकार एक तरह की फिरकापरस्ती
ही है फिर चाहे वह किसी भी
ओर से हो। यह अमीर खुसरो,
तुलसी, गुरुनानक की रवायत का
अपमान है। अमीर खुसरो ने लिखा
है
अपनी छवि बनाई के मैं पी के पास गई
जब छवि देखी पीहू की तो अपनी भूल गई
छाप तिलक सब छीनी रे मौसे
नैना मिलाई के ...
दो तहजीबों के साए में पले
(मां राजपूत थीं) खुसरो पर ख्वाजा
निजामुद्दीन औलिया की कृपा थी।
एटा में जन्मे खुसरो संस्कृत,
अरबी, फारसी समेत अनेक भारतीय
भाषाओं में पारंगत थे। वे कवि तो थे
ही हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में भी
उन्हें महारत हासिल थी जबकि
इस्लाम में गाना-बजाना धर्म संगत
नहीं। गोस्वामी तुलसीदास को
मानस लिखने की प्रेरणा कृष्ण भक्त
नहीं रहे, जहां वे पैदा हुए हैं। बनारस
के गंगा घाट पर बने मंदिर के अहाते में
बिस्मिल्लाह खां साहब का शहनाई
वादन तो जैसे कुफ़्र (पाप) हो गया।
अस्वीकार एक तरह की फिरकापरस्ती
ही है फिर चाहे वह किसी भी
ओर से हो। यह अमीर खुसरो,
तुलसी, गुरुनानक की रवायत का
अपमान है। अमीर खुसरो ने लिखा
है
अपनी छवि बनाई के मैं पी के पास गई
जब छवि देखी पीहू की तो अपनी भूल गई
छाप तिलक सब छीनी रे मौसे
नैना मिलाई के ...
दो तहजीबों के साए में पले
(मां राजपूत थीं) खुसरो पर ख्वाजा
निजामुद्दीन औलिया की कृपा थी।
एटा में जन्मे खुसरो संस्कृत,
अरबी, फारसी समेत अनेक भारतीय
भाषाओं में पारंगत थे। वे कवि तो थे
ही हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में भी
उन्हें महारत हासिल थी जबकि
इस्लाम में गाना-बजाना धर्म संगत
नहीं। गोस्वामी तुलसीदास को
मानस लिखने की प्रेरणा कृष्ण भक्त
तुलसीदास रात को मस्जिद में ही
सोते थे। अवध के नवाब वाजिद
अली शाह के दरबार में तेरह दिन
का रासलीला उत्सव कृष्ण को याद
करके होता था। आजाद हिंद फौज
जय हिंद का नारा बुलंद किया।
ऐसे में जमीयत उलेमा ए हिंद
के चीफ यह कहते हैं कि उन्हें टोपी
पहनने की जरूरत नहीं है। वे कहते हैं ठीक
वैसे ही जैसे मैं तिलक नहीं लगा
सकता उन्हें भी धार्मिक चिन्ह लेने
की जरूरत नहीं है। देश के बडे़
तबके को इस बयान में भले ही भारी
सुगंध का आभास हुआ हो जबकि
टोपी-तिलक कोई ताल्लुक
मजहब से साबित नहीं किया जा
सकता। टोपी, तिलक में उलझाकर
रखने वाले ये लोग देश को पीछे ले
जा रहे हैं। उनमें तेरहवीं सदी की
आधुनिकता भी नहीं।
दक्षिण के उस हिस्से की स्त्रियों
का क्या कीजिएगा जहाँ स्त्रियां बिंदी लगाती
हैं और मंगलसूत्र भी पहनती हैं। फिर तो
दोष उनका भी है जो सलवार
कमीज पहन रहे हैं और उनका भी
जो साड़ी पहनते हैं । उनका भी जो
गैर मजहबी होकर ताजिए की
परिक्रमा करते है और उनका भी
जो दरगाह पर चादर चढ़ाते है। ये
परंपराएं मजहबी नहीं हैं फिर भी
हैं। हो जाइए सख्त और रोक
दीजिए सबको । ये मिट्टी के तौर-तरीके
हैं जो संग-संग रहते हुए हम
सबने अपना लिए हैं।
मुस्लिम टोपी, हिंदू तिलक , में
एक ऐसी विभाजक रेखा की
साजिश नजर आती है जो तहजीब
पर करारा तमाचा है। ये तो वे लोग
हैं, जिन्हें योग क र रहे मजहबी को
देखकर भी तकलीफ होती होगी।
योग, ध्यान ऐसी संपन्न भारतीय
साधनाएं हैं जिनकी पूरी दुनिया
मुरीद है। इस सीमित सोच पर
हैरानी तो होती है उससे भी ज्यादा
हैरानी तब होती है जब इस बयान के
स्वागत में बयान आते हैं। सियासी
संतुलन बनाने की इस फूहड़
कोशिश में किसी भी सच्चे
हिंदुस्तानी को यकीन नहीं होगा। ये
वो लोग हैं जिन्होंने युगों-युगों से
माला फेरी है लेकिन मन की माला
का एक भी मनका नहीं फेर पाए हैं।
संत कबीर ने ही कहा है
माला फेरत जुग भया,
फिरा ना मन का फेर
कर का मनका डार दे,
मन का मनका फेर
इन दिनों हर चैनल ने वोटों
की बहस पर कार्यक्रम बनाए हैं। ये
इस धर्म का , ये इस जाति का । ये
चुनाव के समय ही €क्यों याद आते हैं
इन्हें। ये फितनों की याद दिलाते हैं।
इन दिनों सद्भाव पर ना के बराबर
रपटे हैं । सब गिनने को आतुर हैं।
कोई जख्म तो कोई सर। यह
लोकतंत्र का तकाजा नहीं है। यह
अलगाव की कोशिश है। खुसरो ने
शायद इन्हीं लम्हों के लिए लिखा था
बहुत कठिन है डगर पनघट की
कै से भर लाऊं मधवा से मटकी ।
ऐसे में जमीयत उलेमा ए हिंद
के चीफ यह कहते हैं कि उन्हें टोपी
पहनने की जरूरत नहीं है। वे कहते हैं ठीक
वैसे ही जैसे मैं तिलक नहीं लगा
सकता उन्हें भी धार्मिक चिन्ह लेने
की जरूरत नहीं है। देश के बडे़
तबके को इस बयान में भले ही भारी
सुगंध का आभास हुआ हो जबकि
टोपी-तिलक कोई ताल्लुक
मजहब से साबित नहीं किया जा
सकता। टोपी, तिलक में उलझाकर
रखने वाले ये लोग देश को पीछे ले
जा रहे हैं। उनमें तेरहवीं सदी की
आधुनिकता भी नहीं।
दक्षिण के उस हिस्से की स्त्रियों
का क्या कीजिएगा जहाँ स्त्रियां बिंदी लगाती
हैं और मंगलसूत्र भी पहनती हैं। फिर तो
दोष उनका भी है जो सलवार
कमीज पहन रहे हैं और उनका भी
जो साड़ी पहनते हैं । उनका भी जो
गैर मजहबी होकर ताजिए की
परिक्रमा करते है और उनका भी
जो दरगाह पर चादर चढ़ाते है। ये
परंपराएं मजहबी नहीं हैं फिर भी
हैं। हो जाइए सख्त और रोक
दीजिए सबको । ये मिट्टी के तौर-तरीके
हैं जो संग-संग रहते हुए हम
सबने अपना लिए हैं।
मुस्लिम टोपी, हिंदू तिलक , में
एक ऐसी विभाजक रेखा की
साजिश नजर आती है जो तहजीब
पर करारा तमाचा है। ये तो वे लोग
हैं, जिन्हें योग क र रहे मजहबी को
देखकर भी तकलीफ होती होगी।
योग, ध्यान ऐसी संपन्न भारतीय
साधनाएं हैं जिनकी पूरी दुनिया
मुरीद है। इस सीमित सोच पर
हैरानी तो होती है उससे भी ज्यादा
हैरानी तब होती है जब इस बयान के
स्वागत में बयान आते हैं। सियासी
संतुलन बनाने की इस फूहड़
कोशिश में किसी भी सच्चे
हिंदुस्तानी को यकीन नहीं होगा। ये
वो लोग हैं जिन्होंने युगों-युगों से
माला फेरी है लेकिन मन की माला
का एक भी मनका नहीं फेर पाए हैं।
संत कबीर ने ही कहा है
माला फेरत जुग भया,
फिरा ना मन का फेर
कर का मनका डार दे,
मन का मनका फेर
इन दिनों हर चैनल ने वोटों
की बहस पर कार्यक्रम बनाए हैं। ये
इस धर्म का , ये इस जाति का । ये
चुनाव के समय ही €क्यों याद आते हैं
इन्हें। ये फितनों की याद दिलाते हैं।
इन दिनों सद्भाव पर ना के बराबर
रपटे हैं । सब गिनने को आतुर हैं।
कोई जख्म तो कोई सर। यह
लोकतंत्र का तकाजा नहीं है। यह
अलगाव की कोशिश है। खुसरो ने
शायद इन्हीं लम्हों के लिए लिखा था
बहुत कठिन है डगर पनघट की
कै से भर लाऊं मधवा से मटकी ।