
यह चेहरा है अमेरिकी नागरिक एडवर्ड स्नोडेन का , जो अमेरिका की सुरक्षा एजेंसी(एनएसए) में कार्यरत हैं। उनतीस साल के एडवर्ड का अच्छा खासा जॉब है लेकिन रक्षा विभाग में काम क रते हुए उन्हें लगा कि सुरक्षा के नाम पर अमेरिका उन करोड़ों नागरिकों की निजता का हनन कर रहा है, जो गूगल, फेसबुक स्काइप, यू ट्यूब, माइक्रोसॉफ्ट, एप्पल, याहू जैसी साइट्स पर सक्रिय हैं। अमेरिकी सुरक्षा एजेंसियों की पहुंच इन्हें चलाने वालों के सर्वर तक है। इन कम्पपनियों के संचालक भले ही कहते फिरें कि हमने अमेरिकी सरकार से इन सूचनाओं को साझा नहीं किया है, लेकिन एडवर्ड स्नोडेन की माने, तो उनके जमीर ने यह गवारा नहीं किया कि हर गैर-अमेरिकी का निजी खाता महज इसलिए अमेरिकी सरकार के पास हो, क्योंकी उन्हें अपनी सुरक्षा की चिंता है।
अचरज की बात है, लेकि न सच्चाई यही है कि आप अपनी मासूमियत के चलते जो भी इन सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर साझा करते है, वह अमेरिका को मालूम है। एडवर्ड ने जब इसे उजागर किया, तो उन्हें अमेरिका छोडऩा पड़ा। उन्हें मालूम हो गया है कि उनका यह कदम देशद्रोह की श्रेणी में रखा जा सकता है। एडवर्ड ने इन दिनों हॉन्गकोंग़ में शरण ले रखी है और खुद को एक होटल में कैद क र लिया है।अपनी पहचान ज़ाहिर करने की इच्छा भी उन्ही की है .
जाहिर है कि अमेरिका को जब भी लगेगा कि किसी व्यक्ति की टिप्पणी, तस्वीर, सरकारी कामकाज में दखल है या उसकी रीति-नीति के अनुरूप नहीं है, तो वह दुनिया के किसी भी हिस्से में हो उसकी गिद्ध निगाहों में है। हम भारतीय जो इन पोर्टल्स पर उछल-उछलक र अपने इरादे जाहिर करते रहते हैं वे सब खुफिया निगाहों में हैं। आपके प्रणय निवेदन, तस्वीरें, ख़त सब पर खोजी निगाहें हैं।
यह भी सामने आया है कि ये तमाम डीटेल्स व्यावसायिक कम्पनियों के साथ भी साझा किए गए हैं। मत भूलिए कि जी-मेल खुलते ही आपसे अकसर फोन नंबर मांगता है। कई-कई बार। बार-बार पूछे जाने पर एक बार तो आप ट्रैप में आ ही जाते हैं। अगर आपका फोन नंबर मेल में है, तो किसी भी बंदे के स्मार्ट एन्ड्रॉइड फोन खरीदते ही आपका ई-मेल फोन नंबर सहित उसके फोन में अपडेट हो जाता है, फिर चाहे आपने कभी औपचारिक काम के लिए ई मेल क्यों न कि या हो। काम का नंबर गायब और अनचाहे नंबर मोबाइल में पसर जाते हैं . ये सौदेबाजी व्यावसायिक स्तर पर तो आपको इस्तेमाल करती ही है लेकि न एडवर्ड के खुलासे के बाद तो सुरक्षा के नाम पर गैर-अमेरिकी कभी भी जाल में फंस सकते हैं।
अमेरिकी नीतियों का विरोध आपको महंगा पड़ सकता है। मित्रों, इतना मत चहचहाओ, क्योंकि ये न हमारे देश का सर्वर है और न हमारे देश का को ई कानून वहां चलने वाला है। ये मार्केटिंग का दौर है। आपकी हर इच्छा के दाम हैं और इस पर नियंत्रण बाजार का है। घर, गाड़ी, पॉलिसी खरीदने की इच्छा प्रकट की जिए बाजार में लोग जाल बिछाए बैठे हैं। कहां से आते हैं इतने संदेश आपके मोबाइल पर। यहां से लोन लीजिए, यहां से दुनिया की सैर कीजिए, इस रेस्त्रां में चले आइए, खरा सोना यहां मिलेगा जैसे तमाम संदेसे आपको इस छोटे से डिब्बे में अनचाहे ही मिलते रहते हैं। किसी भी मॉल में जाइए, लकी ड्रॉ के नाम पर पर्ची-पेन लेकर बंदे तैनात हैं। वे इनाम तो क्या देंगे, लेकि न आपकी निजी जानकारी जरूर हथिया लेंगे , जो आपने लकी ड्रॉ की उम्मीद में उन्हें सौंप दी है। यह पहला कदम है जो आप अज्ञानता के चलते बढ़ा देते हैं। सोशल नेटवर्वर्किंग साइट्स भी इसी फंडे पर अपना व्यापार चलाती हैं।
अमेरिकी अखबार में यही सब छप रहा है इन दिनों। जॉर्ज बुश के समय से यानी २००७ से प्रिज्म नामक यह अभियान चला हुआ है,जिसमें लोगों की निजी जानका री चुरा ली जाती है। बराक ओबामा के शासन काल में थोड़ी-सी पूछताछ के बाद भी यह यथावत है। लोग पूछ रहे हैं कि किस स्तर तक आपने हमारी जानकारियां जुटाई हैं। ये तकनीक वाकई इनसान को मशीन बनाने पर ही तुली हुई है । न खुलो न खिलो। मन की बात, किसी सरकारी नीति की आलोचना आपको महंगी पड़ सकती है। आप शिकंजे में हैं। आपके जाहिर होने में बहुत नुकसान है। और तो और हमारे देश के तो सरकारी कामकाज भी इन्हीं साइट्स पर चल रहे हैं।
फर्ज कीजिए कि आप उठते-बैठते किसी साए की निगाहों में हों, तो कैसा लगेगा। मुमकिन है कि आप इस परिस्थिति से भाग जाना चाहें। मानव सामाजिक प्राणी होकर भी आजादी का पैरोकार है लेकिन इस बार तकनीक का रूप धरकर आए अंग्रेज ने हमें फिर से गुलाम बना लिया है। हम लट्टू होकर जाहिर हुए जा रहे हैं, बगैर ये जाने कि ये किसी ग़ैर मुल्क के गुप्त बहीखातों में जमा हो रहा है।
दीवाना है अहमक लिखे जा रहा है आभासीय कागज़ों पर
नहीं जानता कि कभी यही लफ्ज बरसेंगे बारूद बनकर
ps : बताया जा रहा है कि एडवर्ड हांगकांग की उस होटल से गायब हैं