शनिवार, 24 सितंबर 2011
गुरुवार, 1 सितंबर 2011
ANNAtomy of the politicians
![]() |
om puri and kiran bedi at ramleela ground |
पदार्थ नेताओं के शरीर से निकल रहे
हैं। ईमानदार वरिष्ठ नागरिक, अपने
झोले में समाज की चिंताए लेकर चलने
वाले, कम संसाधनों के बावजूद जीवट से आगे बढऩे वाले जिस तेजी से खुद
को हाशिए पर धकेले जाते हुए देख रहे
थे, वे अब फिर से खुद को मुख्यधारा में
महसूस कर रहे हैं। उनकी सोच को जैसे आवाज मिल गई है, चेहरा मिल गया है।
इस बड़ी सफलता में छोटी-मोटी परेशानियां आई हैं। प्रशांत भूषण,किरण बेदी और ओम पुरी के खिलाफ संसद में विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव पेश किया गया है। किरण ने
साफ कह दिया है कि वे माफी नहीं मांगेगी और जरूरत पड़ी तो अपने पक्ष
की पैरवी भी खुद करेंगी। कुछ देर के लिए मान भी लिया जाए कि किरण उस दिन
अपने आचरण से अलग नजर आईं। दुपट्टा ओढ़कर जो कटाक्ष उन्होंने
किए वे तीर की तरह चुभे। इसकी वजह शायद नेताओं का लगातार
बदलता रवैया रही होगी। किरण ने साफ कहा था कि ये नेता हमसे कुछ
बात करते हैं, मीडिया से कुछ कहते हैं और अन्ना के पास फोन कुछ और आता है। मानना पड़ेगा कि टीम अन्ना का समन्वय आला दर्जे का था अन्यथा थोड़ी सी चूक पूरे आंदोलन को कमजोर कर सकती थी।
किरण बेदी से अगर माफी की अपेक्षा है तो क्या
शरद यादव टाइम्स नाऊ के ख्यात पत्रकार अर्णव गोस्वामी से माफी मांगेगे? गौहाटी, आसाम में जन्में अर्णव के दादा मशहूर वकील और कांग्रेस के नेता रहे हैं। नाना आसाम में
कई साल तक विपक्ष के नेता के साथ स्वतंत्रता सेनानी और लेखक। स्वयं अर्णव सैन्य अधिकारी के बेटे हैं। कोलकाता में टेलिग्राफ अखबार से करिअर शुरू करने वाले अर्णव 1995
में एनडीटीवी से जुड़े ।आज वे टाइम्स
नाऊ के लोकप्रिय एंकर हैं और फ्रेंकली स्पीकिंग विथ अर्नव के होस्ट भी हैं. शरद यादव ने जनलोकपाल बिल के प्रस्ताव पर हुई बहस में उन्हें बंगाली मोशाय कहकर
संबोधित किया था। वे कहते हैं, इस बंगाली बाबू में कोई तहजीब नहीं, वह किसी की नहीं सुनता। सबको चुप
करा रहा है, हम कांग्रेसियों से पूछते हैं कि वे वहां जाते ही क्यों हैं जब वह उन्हें बोलने ही नहीं देता। हम तो दस साल से नहीं गए। यह डिब्बा (टीवी) दिन रात चिल्ला-चिल्ला कर एक ही बात कर रहा है। सोने नहीं देता। क्या शरद यादव का यह आचरण पत्रकार की
अवमानना नहीं है?
किरण बेदी पर आते हैं। उनकी मुश्किलें बढ़ी हैं। एक टीवी चैनल पर
मुस्लिम महिला ने उन पर आरोप लगाया कि जब वह आंदोलन में शामिल
होना चाहती थी, उनसे कहा गया कि वंदे मातरम् बोलना पड़ेगा तब ही आप मंच
पर जा सकती हैं। जवाब में किरण का कहना था कि उन्होंने कभी ऐसा नहीं
कहा और आंदोलन तो जाति, धर्म, क्षेत्र से ऊपर था। उन्होंने एतराज किया कि
आप इस तरह कैसे लोगों को टीवी पर ले आते हैं। टीवी एंकर का कहना था
कि इन्होंने एफआईआर दर्ज कराई है।
बहरहाल, वंदे मातरम को लेकर किसी को क्यों एतराज होना चाहिए और ऐसी बातें शाही इमाम ने भी अभी ही क्यों की? क्या उन्हें तकलीफ थी कि हक की लड़ाई में हिंदु-मुस्लिम एक होकर डटे हैं?
प्रख्यात और लोकप्रिय पत्रकार शाहिद मिर्जा ने वर्ष 2006 में वंदे मातरम् यानी मां, तुझे सलाम शीर्षक से एक लेख लिखा .
उन्होंने लिखा -यह अफसोसनाक है कि राष्ट्रगीत वंदे मातरम् को लेकर मुल्क में फित्ने और फसाद फैलाने वाले सक्रिय
हो गए हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने तय किया कि सात सितंबर वंदे मातरम् का शताब्दी वर्ष है। इस मौके पर देश भर के स्कू लों में वंदेमातरम् का सार्वजनिक गान किया
जाए। इस फैसले का विरोध दिल्ली की जामा मस्जिद इमाम (वे स्वयं को शाही कहते हैं) अहमद बुखारी ने कर दिया।देश के मुसलमान वंदे मातरम् गाते हैं। उसी तरह जैसे जन-गण-मन गाते हैं। कभी इमाम बुखारी और कभी सैयद शहाबुद्दीन जैसे लोग स्वयंभू नेता बनकर अलगाववादी बात करते रहे हैं। ऐसा करके वे अपनी राजनीति चमका पाते हैं या नहीं, यह शोध का विषय है लेकिन देश के आम मुसलमान का बहुत भारी नुकसान कर देते हैं। आम मुसलमान तो एआर रहमान की धुन पर आज भी यह गाने में संकोच नहीं करता। मां तुझे सलाम... इसमें एतराज की बात ही कहां है? धर्म या इस्लाम कहां आड़े आ गया? अपनी मांको सलाम नहीं करे तो क्या करें? अपने मुल्क को अपनी सरजमीं को मां कहने में किसे दिक्कत है?
बेशक, मुल्क को बांटने वाले हर उस दौर में सक्रिय हो जाते हैं जब देश नई ताकत हासिल कर रहा होता है लेकिन वक्त ने यह खुशियां एक साथ बख्शी हैं। ईद और गणेश चतुर्थी साथ
आई हैं। हर एक दिल उत्साह और उल्लास में है। देश में नई उर्जा का संचरण है। हम एक मजबूत लोकतंत्र हैं, यह पिछले दिनों शिद्दत से महसूस हुआ. वन्दे मातरम्.
थे, वे अब फिर से खुद को मुख्यधारा में
महसूस कर रहे हैं। उनकी सोच को जैसे आवाज मिल गई है, चेहरा मिल गया है।
इस बड़ी सफलता में छोटी-मोटी परेशानियां आई हैं। प्रशांत भूषण,किरण बेदी और ओम पुरी के खिलाफ संसद में विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव पेश किया गया है। किरण ने
साफ कह दिया है कि वे माफी नहीं मांगेगी और जरूरत पड़ी तो अपने पक्ष
की पैरवी भी खुद करेंगी। कुछ देर के लिए मान भी लिया जाए कि किरण उस दिन
अपने आचरण से अलग नजर आईं। दुपट्टा ओढ़कर जो कटाक्ष उन्होंने
किए वे तीर की तरह चुभे। इसकी वजह शायद नेताओं का लगातार
बदलता रवैया रही होगी। किरण ने साफ कहा था कि ये नेता हमसे कुछ
बात करते हैं, मीडिया से कुछ कहते हैं और अन्ना के पास फोन कुछ और आता है। मानना पड़ेगा कि टीम अन्ना का समन्वय आला दर्जे का था अन्यथा थोड़ी सी चूक पूरे आंदोलन को कमजोर कर सकती थी।
किरण बेदी से अगर माफी की अपेक्षा है तो क्या
शरद यादव टाइम्स नाऊ के ख्यात पत्रकार अर्णव गोस्वामी से माफी मांगेगे? गौहाटी, आसाम में जन्में अर्णव के दादा मशहूर वकील और कांग्रेस के नेता रहे हैं। नाना आसाम में
कई साल तक विपक्ष के नेता के साथ स्वतंत्रता सेनानी और लेखक। स्वयं अर्णव सैन्य अधिकारी के बेटे हैं। कोलकाता में टेलिग्राफ अखबार से करिअर शुरू करने वाले अर्णव 1995
में एनडीटीवी से जुड़े ।आज वे टाइम्स
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right now: arnav goswa |
संबोधित किया था। वे कहते हैं, इस बंगाली बाबू में कोई तहजीब नहीं, वह किसी की नहीं सुनता। सबको चुप
करा रहा है, हम कांग्रेसियों से पूछते हैं कि वे वहां जाते ही क्यों हैं जब वह उन्हें बोलने ही नहीं देता। हम तो दस साल से नहीं गए। यह डिब्बा (टीवी) दिन रात चिल्ला-चिल्ला कर एक ही बात कर रहा है। सोने नहीं देता। क्या शरद यादव का यह आचरण पत्रकार की
अवमानना नहीं है?
किरण बेदी पर आते हैं। उनकी मुश्किलें बढ़ी हैं। एक टीवी चैनल पर
मुस्लिम महिला ने उन पर आरोप लगाया कि जब वह आंदोलन में शामिल
होना चाहती थी, उनसे कहा गया कि वंदे मातरम् बोलना पड़ेगा तब ही आप मंच
पर जा सकती हैं। जवाब में किरण का कहना था कि उन्होंने कभी ऐसा नहीं
कहा और आंदोलन तो जाति, धर्म, क्षेत्र से ऊपर था। उन्होंने एतराज किया कि
आप इस तरह कैसे लोगों को टीवी पर ले आते हैं। टीवी एंकर का कहना था
कि इन्होंने एफआईआर दर्ज कराई है।
बहरहाल, वंदे मातरम को लेकर किसी को क्यों एतराज होना चाहिए और ऐसी बातें शाही इमाम ने भी अभी ही क्यों की? क्या उन्हें तकलीफ थी कि हक की लड़ाई में हिंदु-मुस्लिम एक होकर डटे हैं?
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journo by heart : shahid mirza: |
उन्होंने लिखा -यह अफसोसनाक है कि राष्ट्रगीत वंदे मातरम् को लेकर मुल्क में फित्ने और फसाद फैलाने वाले सक्रिय
हो गए हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने तय किया कि सात सितंबर वंदे मातरम् का शताब्दी वर्ष है। इस मौके पर देश भर के स्कू लों में वंदेमातरम् का सार्वजनिक गान किया
जाए। इस फैसले का विरोध दिल्ली की जामा मस्जिद इमाम (वे स्वयं को शाही कहते हैं) अहमद बुखारी ने कर दिया।देश के मुसलमान वंदे मातरम् गाते हैं। उसी तरह जैसे जन-गण-मन गाते हैं। कभी इमाम बुखारी और कभी सैयद शहाबुद्दीन जैसे लोग स्वयंभू नेता बनकर अलगाववादी बात करते रहे हैं। ऐसा करके वे अपनी राजनीति चमका पाते हैं या नहीं, यह शोध का विषय है लेकिन देश के आम मुसलमान का बहुत भारी नुकसान कर देते हैं। आम मुसलमान तो एआर रहमान की धुन पर आज भी यह गाने में संकोच नहीं करता। मां तुझे सलाम... इसमें एतराज की बात ही कहां है? धर्म या इस्लाम कहां आड़े आ गया? अपनी मांको सलाम नहीं करे तो क्या करें? अपने मुल्क को अपनी सरजमीं को मां कहने में किसे दिक्कत है?
बेशक, मुल्क को बांटने वाले हर उस दौर में सक्रिय हो जाते हैं जब देश नई ताकत हासिल कर रहा होता है लेकिन वक्त ने यह खुशियां एक साथ बख्शी हैं। ईद और गणेश चतुर्थी साथ
आई हैं। हर एक दिल उत्साह और उल्लास में है। देश में नई उर्जा का संचरण है। हम एक मजबूत लोकतंत्र हैं, यह पिछले दिनों शिद्दत से महसूस हुआ. वन्दे मातरम्.
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