बड़े बवंडर थाम लेती हैं ये पलकें
याद का तिनका तूफ़ान ला देता है
पथरीले रास्तों में संभल जाती है वो
नन्हा-सा एक फूल घायल कर देता है
सेहरा की धूप नहीं जला पाती उसे
बादल का एक टुकड़ा सुखा देता है
कभी तो आओ मेरे सुकून ए जां
क्यों सब गैर ज़रूरी दिखाई देता है
आज हर तरफ परचम और रोशनी है
लोगों को इसमें भी फरेब दिखाई देता है
आज गुलज़ार साहब की 76 वीं सालगिरह है उन्हीं की एक नज़्म जो मेरे सवाल का जवाब भी है.
रोज़गार के सौदों में जब भाव-ताव करता हूँ
गानों की कीमत मांगता हूँ -
सब नज्में आँख चुराती हैं
और करवट लेकर शेर मेरे
मूंह ढांप लिया करते हैं सब
वो शर्मिंदा होते हैं मुझसे
मैं उनसे लजाता हूँ
बिकनेवाली चीज़ नहीं पर
सोना भी तुलता है तोले-माशों में
और हीरे भी 'कैरट' से तोले जाते हैं .
मैं तो उन लम्हों की कीमत मांग रहा था
जो मैं अपनी उम्र उधेड़ के,साँसें तोड़ के देता हूँ
नज्में क्यों नाराज़ होती हैं ?
ps:गुलज़ार साहब की किताब छैंया-छैंया के बेक कवर से