पिछले दिनों कनाडा के टोरंटो शहर में एक पुलिस कांस्टेबल ने महिला विद्यार्थियों से कह दिया कि अवॉइड ड्रेसिंग लाइक स्लट्स......
पुलिसवाला नहीं जानता था कि उसकी इस एक टिप्पणी से तूफान आ जाएगा और स्लट वॉक नाम का आंदोलन शुरू हो जाएगा। महिलाएं कम कपड़े पहनकर सड़कों पर निकल आएंगी और कहेंगी देखो कपडे कम हो या पूरे छेड़छाड़ न हो इसके लिए कपड़े नहीं वह मानसिकता जिम्मेदार है जो ऐसा करना अपना हक़ समझती है .आंदोलन की सोच ने समूचे कनाडा और अमेरिका को झकझोर डाला। महिलाओं ने यह बताने की कोशिश की कि अगर कम कपड़े पहनने पर आप हमें स्लट् यानी फूहड़, कुलटा और ढीठ की संज्ञा देंगे तो यही सही। ऐसा कहकर आप अपराधी को तो बरी कर देते हैं और स्त्री को अपराधी ठहरा देते हैं। यह और बात है कि सकारात्मक भाव के साथ दिल्ली पुलिस कमिश्नर बी.के. गुप्ता भी यही कह चुके हैं कि देर रात किसी महिला को बाहर निकलना हो तो वह अपने रिश्तेदार या फ्रेंड के साथ हो। जाहिर है पुलिस प्रशासन यह स्वीकार चुका है कि महिलाएं अपने भरोसेमंद पुरुष के साथ ही ज्यादा सुरक्षित हैं। जब स्त्री अपने-आप में ही असुरक्षित है तो उसके कपड़े और कम कपड़े सुरक्षा की गारंटी को न तो बढ़ाते हैं और न घटाते ।
पूरे कपड़े ही यदि किसी स्त्री को महफूज रख सकते, तो नन्हीं बच्चियों के साथ बदसलूकी नहीं होती। घरों में लड़कियों पर यौनाचार नहीं होता। छोटे लड़कों के साथ अप्राकृतिक कृत्य नहीं होते। यहां प्रोवोक यानी उकसाने जैसी अवधारणा कहीं भी नहीं है, फिर भी अपराध होते हैं।
स्लट वॉक की तर्ज पर दिल्ली की उन्नीस वर्षीय कॉलेज छात्रा उमंग सबरवाल ने भी ऐसे ही आंदोलन की घोषणा की है। अभी वे फेसबुक पर भाव-भूमिका बना रही हैं। नाम रखा गया है स्लटवॉक, 2011 अर्थात बेशर्म मोर्चा। इसे बीस हजार लोगों की भगीदारी मिल चुकी है।
ढाई साल पहले शिवसेना ने वेलेंटाइन्स डे के अवसर पर मिलने वाले जोड़ों की शादी करा देने की बात कही थी, तब महिलाओं ने उन्हें पिंक चड्डी भेंट करने का अभियान चलाया था। यह विरोध भी स्लट वॉक की तर्ज पर ही था कि आप जैसा सोचते हैं हम उसी पर खरे उतरेंगे। मंगलौर में श्रीराम सेना ने लड़कियों के पब में जाने का विरोध किया था तब तत्कालीन महिला एवं विकास मंत्री रेणुका चौधरी ने पब भरो आंदोलन का समर्थन किया था। सच कहा जाए तो कम कपड़ों में सड़कों पर मोर्चा निकालना हो या पिंक चड्डी भेंट करनी हो या पब भरना, ये तरीके किसी वैचारिक चेतना को जाग्रत नहीं करते। तभी ये किसी बड़े अभियान का सूत्रपात भी नहीं कर पाते।
हमें स्वीकारना चाहिए कि समाज में कुंठाएं व्याप्त हैं। अखबार की साइट पर जाकर देखिए सबसे ज्यादा क्लिक किस खबर को मिलते हैं। देह व्यापार, देह पर रिसर्च जैसी शीर्षक वाली खबरें सबसे ज्यादा पढ़ी जाती हैं। आप खुशफहमी पाल सकते हैं कि शायद पाठक खबर से जुड़े रिसर्च में भी उतनी ही दिलचस्पी रखता हो। फिल्म पब्लिसिटी के तमाम हथकंडे इसी मानसिकता को ध्यान में रखकर अपनाए जाते हैं। खबरें कहती हैं कैटरीना कैफ ने इस फिल्म में रितिक रोशन को किस जरूर किया है, लेकिन अब उन्होंने तौबा कर ली है कि वे किसी फिल्म में किस सीन नहीं करेंगी यहां तक की सलमान के साथ भी नहीं। दर्शक सोचता है यही मौका है देख लो भाई।
स्लट वॉक या बेशर्म मोर्चा निकालने से मानसिकता में बदलाव आना दूर की कौड़ी लगती है। बुनियादी बात है सम्मान। अगर आप किसी का सम्मान नहीं करते तो सकारात्मक भाव नहीं ला सकते। स्त्री को मान देना हमने नहीं सीखा है। वह गर्भ से ही बोझ है। बोझ इसलिए कि उसके पालन-पोषण में हजार दिक्कते हैं। इन हजार दिक्कतों के मूल में वही डर है कि वह कहीं भी कभी भी छेड़ी जा सकती है। बलात्कार, दहेज जैसी तकलीफों से उसे मुक्ति मिल जाए तो शायद माता-पिता बेटी के जन्म पर भी थाली ही पीटेंगे।
कम कपड़े पहनकर आप यदि यह समझाना चाह रही हैं कि हम सीमाओं में न बांधें तो यह मुश्किल ही लगता है क्योंकि सती का विरोध सती होकर नहीं किया जा सकता और न ही डायन बनकर यह व्यथा समझाई जा सकती है . बहरहाल, चीन का चाऊमीन, इटली का पीत्जा और अमेरिका से बर्गर के साथ अहंकार का आयात तो हमने कर लिया है अब आंदोलनों का भी आयात हो रहा है। यूरोपीय संदर्भ हमसे अलग है। उन्हें हमारे दौर से निकले हुए आधी सदी से ज्यादा बीत चुकी है।...फिर भी यदि दिल्ली में निकाले जा रहे बेशर्म मोर्चे से किसी एक की भी सोच बदलती है तो यह सार्थक होगा, न चीर होंगे न हरण होगा.
ढाई साल पहले शिवसेना ने वेलेंटाइन्स डे के अवसर पर मिलने वाले जोड़ों की शादी करा देने की बात कही थी, तब महिलाओं ने उन्हें पिंक चड्डी भेंट करने का अभियान चलाया था। यह विरोध भी स्लट वॉक की तर्ज पर ही था कि आप जैसा सोचते हैं हम उसी पर खरे उतरेंगे। मंगलौर में श्रीराम सेना ने लड़कियों के पब में जाने का विरोध किया था तब तत्कालीन महिला एवं विकास मंत्री रेणुका चौधरी ने पब भरो आंदोलन का समर्थन किया था। सच कहा जाए तो कम कपड़ों में सड़कों पर मोर्चा निकालना हो या पिंक चड्डी भेंट करनी हो या पब भरना, ये तरीके किसी वैचारिक चेतना को जाग्रत नहीं करते। तभी ये किसी बड़े अभियान का सूत्रपात भी नहीं कर पाते।
हमें स्वीकारना चाहिए कि समाज में कुंठाएं व्याप्त हैं। अखबार की साइट पर जाकर देखिए सबसे ज्यादा क्लिक किस खबर को मिलते हैं। देह व्यापार, देह पर रिसर्च जैसी शीर्षक वाली खबरें सबसे ज्यादा पढ़ी जाती हैं। आप खुशफहमी पाल सकते हैं कि शायद पाठक खबर से जुड़े रिसर्च में भी उतनी ही दिलचस्पी रखता हो। फिल्म पब्लिसिटी के तमाम हथकंडे इसी मानसिकता को ध्यान में रखकर अपनाए जाते हैं। खबरें कहती हैं कैटरीना कैफ ने इस फिल्म में रितिक रोशन को किस जरूर किया है, लेकिन अब उन्होंने तौबा कर ली है कि वे किसी फिल्म में किस सीन नहीं करेंगी यहां तक की सलमान के साथ भी नहीं। दर्शक सोचता है यही मौका है देख लो भाई।
स्लट वॉक या बेशर्म मोर्चा निकालने से मानसिकता में बदलाव आना दूर की कौड़ी लगती है। बुनियादी बात है सम्मान। अगर आप किसी का सम्मान नहीं करते तो सकारात्मक भाव नहीं ला सकते। स्त्री को मान देना हमने नहीं सीखा है। वह गर्भ से ही बोझ है। बोझ इसलिए कि उसके पालन-पोषण में हजार दिक्कते हैं। इन हजार दिक्कतों के मूल में वही डर है कि वह कहीं भी कभी भी छेड़ी जा सकती है। बलात्कार, दहेज जैसी तकलीफों से उसे मुक्ति मिल जाए तो शायद माता-पिता बेटी के जन्म पर भी थाली ही पीटेंगे।
कम कपड़े पहनकर आप यदि यह समझाना चाह रही हैं कि हम सीमाओं में न बांधें तो यह मुश्किल ही लगता है क्योंकि सती का विरोध सती होकर नहीं किया जा सकता और न ही डायन बनकर यह व्यथा समझाई जा सकती है . बहरहाल, चीन का चाऊमीन, इटली का पीत्जा और अमेरिका से बर्गर के साथ अहंकार का आयात तो हमने कर लिया है अब आंदोलनों का भी आयात हो रहा है। यूरोपीय संदर्भ हमसे अलग है। उन्हें हमारे दौर से निकले हुए आधी सदी से ज्यादा बीत चुकी है।...फिर भी यदि दिल्ली में निकाले जा रहे बेशर्म मोर्चे से किसी एक की भी सोच बदलती है तो यह सार्थक होगा, न चीर होंगे न हरण होगा.