रेवा का घर जाने का बिलकुल मन नहीं था। ऑफिस से तेज बाइक चलाकर ईपी में फिल्म देखना चाहती थी। कैफे कूबा में कैपेचिनो का स्वाद लेते हुए स्टेचू सर्कल की रोशनी में नहाते हुए जनपथ से गुजरते हुए बेवजह जेएलएन मार्ग का चक्कर काटना चाहती थी, फिर उसने अपना हुलिया चैक किया। स्लीवलैस और कैप्री! नहीं...आज नहीं। उसने सिर को झटका दिया और वक्त से घर पहुंच गई।
कई बार रेवा का मन करता है कि वह इस शहर को जिए। कभी नुक्कड़वाली पान की दुकान पर ही खड़ी हो जाए, तो कभी जेकेलोन के उन मुड्ढों पर चाय की चुस्कियां ले और कभी रैन बसेरे के बाहर खड़ी हो वहां की रात पर भरपूर निगाह डाले। एक बार पहुंच भी गई। एक पुलिस वाला जो उसे कुछ देर से देख रहा था, बोला- मैडम घर जाओ...यहां अच्छे लोग नहीं आते। कुछ हो गया तो हम परेशानी में पड़ जाएंगे। रेवा चुपचाप वहां से चल पड़ी। सर्दी की रात, साढ़े दस बजे उसने सुलभ शौचालय का इस्तेमाल करना चाहा, तो वह भी बंद मिला, अलबत्ता पुरुष सुविधाएं
यथावत थीं।

इन तमाम सवालों के जवाब देने की कोशिश की है शिल्पा फड़के, शिल्पा रानाड़े और समीरा खान ने। सवालों को उन्होंने किसी कस्बे या शहर की रोशनी में नहीं देखा है और न ही दिल्ली में, जो एक 'जेन्डर बायस्ड राजधानी है, बल्कि ये सवाल वीमन फ्रेंडली मुंबई के तरकश पर कसे गए हैं... आपको हैरानी होगी कि मुंबई भी महिला की इस कथित आवारगी का बोझ नहीं सह सकी। समंदर का साहस रखने वाले मुंबइकर भी स्त्री को जॉब, शॉपिंग, बच्चों को स्कूल छोडऩे के अलावा कहीं और देखने के आदी नहीं हैं। इसी मुद्दे पर इन तीनों ने एक किताब लिखी है 'वाय लॉइटर? वीमन एंड रिस्क ऑन मुबई स्ट्रीट्स। पेंग्विन ने इसे प्रकाशित किया है और यह इनकी तीन साल की रिसर्च का नतीजा है। नतीजे कहते हैं कि मुंबई की स्त्री जो काम से आते-जाते घड़ी की सुइयों की मोहताज नहीं, उसे भी हर वक्त यह डर लगा रहता है कि कोई उसे टोक न दे। वह इस कथित हमले के लिए तैयार और चौकन्नी रहती है।

सवाल आपका भी हो सकता है क्यों करनी है आवारगी या लॉइटर? अपना काम करो। आवरगी तो पुरुषों की भी खराब मानी जाती है...लेकिन उन पर शायद उतना बोझ नहीं होता, ना ही खतरा।
वह क्यों नहीं जी सकती अपने इलाके को?