आज जाने क्यों उस पर लिखने के लिए बाध्य हो गयीं हूँ जिस पर सभ्य घरों में सोचना भी मना है. इन दिनों पसरती धूल ने किताबों को भी नहीं बख्शा है. धूल ही झाड़ने की कोशिश में राही मासूम रज़ा की लिखी ओस की बूँद हाथ आ गयी. धूल कम, हर्फ़ ज्यादा दिखाई देने लगे . फ्लैप पढ़ा तो बस वहीँ रह गयी.
मेरे परिवार में आधा गाँव, ओस की बूँद उनके ये दोनों ही उपन्यास वर्जित थे .उसी तरह शेखर कपूर की बेंडिट क्वीन भी. लेकिन अब गलियाँ मुझे भली लगती हैं .क्योंकि किसी ने मुझे उसका भी गणित समझाया...कि यह बेवजह नहीं होती ...कि इनको कह देने के बाद मन निष्पाप हो जाता है... कि आम इंसान को समझना है तो उसकी भाषा को समझो. बस तबसे जब भी सड़क पर गालियों के स्वर सुनती हूँ तो चिढ़ नहीं जाती और न ही वित्रष्णा होती है . पहले यही सब होता था. कोई होता है जिसके मुख से अपशब्द भी सोने-से खरे लगते हैं . वे बेवजह नहीं होते. कई बार सोचती हूँ कि यहाँ से गाली हटा कर किस शब्द को रखूँ कि बात में वजन पड़ जाए लेकीन यकीन मानिये मेरी हार होती. सामान्य शब्दों में शायद वह धार ही नहीं होती जो गाली में होती है. शायद आप जानते हों गलियों के भी शोर्ट फोर्म्स होते हैं. कहनेवाला बात भी कह देता और इज्ज़त भी बनी रहती है
... जो मित्र समझ रहे हैं वे मुझे बख्शेंगे नहीं कि कोई यूं भी यादों को याद करता है. क्या करें याद तो याद ठहरी सही समय पर सही धुन बजाने से तो रही. संक्षेप में बस इतना ही कि मैंने गालियों को किसी कि गोद में बच्चों कि तरह खेलते देखा है . पास बैठे को धूजने कि बजाय रस लेते देखा है और तो और तो और कुछ समय बाद उसे वही सब जपते हुए भी देखा है. इसी बीच गलियाँ सुनानेवला कब काबा और शिवाला कि गलियों में खो जाता है कोई नहीं समझ पाता.
पहले एक नामुराद-सा शेर और फिर मुरादों वाले रज़ा साहब के वे शब्द जो उन्होंने आधा गाँव लिखने के बाद ओस की बूँद की भूमिका में लिखे हैं .
तेरी खुशबू आती है इन किताबों से
फिर जाने क्यों होश अपना नहीं रहता
बड़े-बूढ़ों ने कई बार कहा की गलियां न लिखो जो आधा गाँव में इतनी गालियाँ न होती तो तुम्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार अवश्य मिल गया होता,परन्तु मैं सोचता हूँ की क्या में उपन्यास इसलिए लिखता हूँ की मुझे पुरस्कार मिले ?पुरस्कार मिलने में कोई नुकसान नहीं फायदा ही है. परन्तु मैं एक साहित्यकार हूँ . मेरे पात्र यदि गीता बोलेंगे तो मैं गीता के श्लोक लिखूँगा. और वह गालियाँ बकेंगे तो मैं अवश्य उनकी गालियाँ लिखूँगा . मैं कोई नाज़ी साहित्यकार नहीं हूँ कि अपने उपन्यास के शहरों पर अपना हुक्म चलाऊँ और हर पात्र को एक शब्दकोष थमाकर हुक्म दे दूं कि जो एक शब्द अपनी तरफ से बोले तो गोली मार दूंगा. कोई बड़ा बूढ़ा बताए कि जहाँ मेरे पात्र गाली बकते हैं. वहां मैं गालियाँ हटाकर क्या लिखूं ? डोट डोट डोट ?
तब तो लोग अपनी तरफ से गालियाँ गढ़ने लगेंगे और गालियों के सिलसिले में अपने पत्रों के अलावा किसी पर भरोसा नहीं है
ओस की बूँद के पात्र भी कहीं-कहीं गालियाँ बकते हैं. यदि आपने कभी गाली सुनी ही न हो तो आप यह उपन्यास न पढ़िए. मैं आपको ब्लश करवाना नहीं चाहता.
ps: दरअसल,गाली देना कोई वीरता का काम नहीं लेकिन कमबख्त गाली की जगह जाने क्यों गाली ही सटीक बैठती है. आधा गाँव पढ़कर और फूलन देवी की कथा पर आधारित फिल्म द बेंडिट क्वीन देखकर तो यह धारणा और मज़बूत होती है.