
बाज़ार में इन दिनों जहाँ कबाड़ से लेकर महल तक बिक रहे हैं वहीँ जिंदगियां भी दाव पर लगी हैं उसने अपनी नवजात बच्ची को बेच दिया. यह पहली बार नहीं था कि धन के नीचे संवेदना कुचली गयी हो. नवरात्र में कन्या जिमाने का दस्तूर है लेकिन उसने अपना अंश किसी और के सुपुर्द कर दिया था. अगर आप मान रहे कि वह बिटिया थी इसलिए ऐसा हुआ तो आप भूल करेंगे
यह बेटी तेईस साल की भव्या की चौथी संतान है। पति नंदू खास कमाता नहीं। पड़ोसी थे, शादी कर ली। दोनों के माता-पिता की सहमति इस शादी में नहीं थी। अपनी संतान से मुंह मोड़ पाना कब किस के बस में रहा है [लेकिन भव्या -नंदू के बस में तो है]वे धीरे-धीरे जुड़ने लगे।
धन का अभाव अमावस के अंधेरे की तरह इनके साथ लगा हुआ था। कामचोर पति का साथ निभाते हुए भव्या ने कई छोटी-मोटी नौकरियां की, लेकिन कोई भी कायम नहीं रही। पहली संतान एक बेटा हुआ, जो कुपोषण का शिकार था। दो महीने बाद ही वह दुनिया छोड़ गया। दसवीं फेल भव्या कभी किसी पार्लर में, कभी कैटरिंग सर्विस में और कभी सेल्स में काम करती रही। बेटे की मौत के एक साल बाद दूसरी संतान उसकी गोद में थी। पालने के लिए न समय था, न पैसा। भव्या की सास ने उसे पाल लिया। वह बच्ची को दिलोजान से चाहती है और वह दादी को ही मां बुलाती है। उसके माता-पिता उसकी ओर से बेखबर हैं। सवा साल बाद एक और पुत्र भव्या की झोली में था। आम मानसिकता होती है अब तो बेटा भी हो गया है, भव्या-नंदू का परिवार पूरा । अभाव के मारे ये दोनों पति-पत्नी केवल पांच हजार रुपए में बेटा बेच आए। तब भव्या का कहना था कि मन तो रोता था, लेकिन उसकी जिंदगी संवर जाएगी। हम उसे क्या दे सकते थे। भव्या की सास ने बहुत रोका,चीखी-चिल्लाई, लेकिन डील हो चुकी थी।
अब भव्या ने अपनी नवजात बेटी के साथ भी यही किया है। नंदू भी इन सबमें शामिल है। इस बार का सौदा थोड़ा बेहतर है। बच्ची गोद लेने वाले ने पांच हजार नकद दिए हैं और नंदू का आठ हजार रुपए का पुराना कर्ज चुकाने का वादा भी किया है। भव्या के नौ माह के गर्भ और दर्द की कीमत तेरह हजार रुपए लगी है। त्योहार है। खूब खरीद-फरोख्त जारी है, लेकिन ऐसा व्यापार? दिल दहल जाता है। खून सूखने लगता है। लगातार दो बार यह स्त्री अपनी संतान किसी और के हवाले कर चुकी है। कोई उम्मीद नहीं कि वह कभी उसे देख पाएगी, छू सकेगी। यह संवेदनाओं का खात्मा है या गरीबी का अभिशाप। शायद संवेदनाओं को पलने के लिए भी रोजी-रोटी का सहारा चाहिए। अभाव में जब संतान पेट में आ सकती है तो फिर उसे पालने-पोसने का संकल्प क्यों नहीं? क्या अपना कलेजा किसी को सौंप देना आसान है। वे बच्चे जो मां के दूध से लगे हैं, यकायक दूर हो जाते हैं। कितना कठिन फैसला होगा यह मां के लिए और संतान, उसका तो यह फैसला भी नहीं।
लगातार दो बार अपने बच्चों को बेचने की घटना हैरान करती है, वह मामूली राशि के लिए। भव्या कहती है, मैं बच्चे बेच नहीं रही हूं। बस उनकी परवरिश बेहतर हो जाए। ओह... यह कैसी परवरिश होगी, जो मां के बगैर हो और कैसी दुनियादारी कि जहां धन है, वहां बच्चे नहीं और जहां बच्चे हैं वहां धन नहीं। धन के गणित ने बच्चों से उनके माता-पिता छीन लिए। यहां यह भूमिका यमराज ने नहीं, माया ने अदा की है। जयपुर में ऐसी कई भव्याएं हैं। त्योहार के इस शुभ मुहूर्त में जीवन भी बिक रहे हैं।?
painting by husain baba.