
अरसे बाद आज सुबह-सुबह पहले दिन पहला शो देखा। जयपुर के वैभव मल्टीप्लैक्स में। स्लमडॉग मिलेनियर। दो सौ के हाल में कुल जमा हम सात। मिलेनियर होने का ही एहसास हुआ। खैर देसी कलाकारों और देसी हालात पर जो विदेशी कैमरा घूमा है वह वाकई कमाल है। समंदर किनारे की आलीशान अट्टालिकाओं के पार मुंबई की धारावी नहीं हम सब अनावृत्त हुए हैं। कच्ची बस्ती की शौच व्यवस्था से लेकर उनकी नींद तक का सिनेमा हमारी आंखें खोल देने वाला है। हम भले ही अपनी फिल्मों में एनआरआई भारतीय की लकदक जिंदगी देख सपनों में खोने के आदी रहे हों लेकिन फिल्म माध्यम के पास यथार्थ दिखाने की जबरदस्त ताकत है का अंदाजा पाथेर पांचाली के बाद एक बार फिर होता है। सत्यजीत रे पर आरोप लगाया गया था कि उन्होंने भारत की गरीबी बेची है। पचास साल बाद भी हम यही आरोप लगा रहे हैं। शर्म आती है हमें कि आज तक हम भारतवासी को भरपेट रोटी और छत नहीं दे पाए हैं। रे साहब आज नहीं है। हालात अब भी जिंदा है। अगर किसी ने कुछ बेचा है तो वह हमारी कथित मुख्यधारा के फिल्म मेकर हैं, जिन्होंने झूठे सपने बेचे हैं। इन फिल्मों से ऐशो-आराम खरीदा है ।
फ़िल्म का पहला भाग बेहद घटना प्रधान और यथार्थ के करीब है तो दूसरा थोड़ा नाटकीय हो गया है। बच्चों की भूमिकाएं बड़ों से हैं। रहमान का ऑस्कर पक्का लगता है। नायक का नाम जमाल मलिक की बजाय राम मोहम्मद थॉमस ही होता तो अच्छा था। विकास स्वरूप के उपन्यास में यही है।अब जब किताब का नाम ही क्यू एंडऐ स्लम डॉग... हो गया तो बाज़ारपरस्ती के भाव को समझा जा सकता है ।
बहरहाल शाहरुख खान ने सही कहा कि अनिल कपूर वाला किरदार थोड़ा नेगेटिव था इसलिए उन्होंने मना कर दिया। डेनी बॉयल जब अमिताभ के बारे में कहते हैं कि उनके ग्रेस का लाभ फिल्म को मिला है तो वे वाकई बड़े हो जाते हैं क्योंकि कौन बनेगा करोड़पति में अमिताभ जिस गरिमा के साथ हाजिर हुए थे वह उन्हीं के बूते की बात थी। बहरहाल नीली जरीवाले शामियाने में टके पैबंद की हकीकत में विचरना अच्छा लगता है। और हां इरफान खान की क्षमता के आगे उनका रोल कुछ कम चुनौतीपूर्ण लगा। एज युजूअल उन्हें कोई मशक्कत नहीं लगी होगी